अति कोपयुक्त होय परी सुखविते मला ।
भृकुटि वक्र करुनि बघत ।
गाल लाल सर्व होत ।
थरथर तनु कांपवीत इंदुवदनिं घर्म सूटला ॥
जणु कनकाची मूर्ति अग्निमाजिं तावली ।
कीं नभ सोडुनि वीजचि ती खालिं उतरली ।
कीं ज्वलनाची ज्वाला कुंडात पेटली ॥
एक जगिं पद न ठरत ।
हृदय भरत रिक्त होत ।
अधरबिंब काय फुटत तेंवि वरी दंत रोंविला ॥
L - अण्णासाहेब किर्लोस्कर
M - अण्णासाहेब किर्लोस्कर
S - छोटा गंधर्व
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